कुरान तो उपलब्ध है पर कम्प्यूटर कहां है?
-सगीर किरमानी
‘‘कुरान में ‘इल्म‘ शब्द 800 बार आया है। अल्लाह के बाद जो शब्द सबसे ज्यादा बार कुरान में दोहराया गया है, वह इल्म ही है। इससे पता चलता है कि इस्लाम में इल्म यानी ज्ञान यानी शिक्षा की अहमियत कितनी ज्यादा है।‘‘ यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम देशों के राजनयिकों और सार्क देशों के उच्चायुक्तों को संबोधित करते हुए ‘एजुकेषन आॅफ मुस्लिम‘ नामक किताब का लोकार्पण करते हुए कही। इससे पहले वे मुस्लिम उलेमा की महफिलों में कई बार यह ‘जुमला‘ दोहरा चुके हैं कि वे मुस्लिम युवकों के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कम्प्यूटर देखना चाहते हैं। यहां नरेंद्र मोदी को यह जानना-समझना जरूरी है कि तालीम के मामले में मुस्लिम युवकों की नुमाइंदगी न तो मुस्लिम देशों के नेता या राजनयिक करते हैं और न मजहबी उलेमा, क्योंकि इन दोनों वर्गों के निहित स्वार्थ मदरसों से जुड़ी मजहबी तालीम पर जोर देने तक की इजाजत देते हैं, जबकि कुरान में जिस ‘इल्म‘ का उल्लेख आया है, उसका आशय हर तरह के सांसारिक ज्ञान-विज्ञान से है।
कांग्रेसी और अन्य ‘सेक्युलरवादी‘ नेताओं की तरह नरेंद्र मोदी भी जानते हैं कि मुसलमान मजहबी तालीम के मामले में कितना संवेदनशील है, इसलिए कुरान की बात करना एक सियासी तकाजा हो सकता है लेकिन मुस्लिम युवकों के लिए कम्प्यूटर यानी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा पर जोर देना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है, जो न केवल मुस्लिम समाज बल्कि देश के व्यापक हित में है। राजनीतिक मक्सद से मुसलमानों को खुश करने की कांग्रेसी रीति-नीति पर अमल करना है तब तो मजहबी शख़्सियतों को अहमियत देने की रणनीति ठीक है, वरना अगर आप मुसलमानों का पिछड़ापन दूर करने के प्रति ईमानदार हैं तो आपको इस मजहबी ‘आभामंडल‘ से बाहर निकलना होगा। जब भी मुसलमानों के मसलों पर विचार-विमर्श का मौका आता है तो धार्मिक शख़्सियतें मुसलमानों की नुमाइंदगी करती नजर आती हैं। आधुनिक विचार वाले, उदारवादी और सेक्युलर छवि वाले मुस्लिम नेताओं का अभाव होता है। इस यथास्थिति को देखकर लगता है कि नरेंद्र मोदी की ‘एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कम्प्यूटर‘ वाली बात अधूरी है। मुस्लिम युवकों को आज ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो मजहब के आधार पर उनका ध्रुवीकरण न करते हुए उन्हें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मुख्य धारा से जोड़ सके।
करीब डेढ़ सौ साल पहले सर सैयद अहमद खां ने मुसलमानों के लिए अंग्रेजी और आधुनिक शिक्षा की जरूरत पर जोर दिया था। यह जरूरत डेढ़ शताब्दी के बाद भी बरकरार है। सर सैयद ने मुस्लिम युवकों को अंग्रेजी और आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए अलीगढ़ में मुहम्मडन ऐंग्लो-ओरिएंटेड काॅलेज की स्थापना की, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में विकसित हुआ। सर सैयद के प्रयासों से मुसलमानों के शैक्षिक स्तर में सुधार की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उस पर मुल्क के बंटवारे का जबरदस्त असर पड़ा। उच्च शिक्षित लोग अच्छे मौकों की उम्मीद में पाकिस्तान चले गए। शैक्षिक रूप से पिछड़ेे मुसलमान जो भारत में रह गए, उनके सामने मदरसे ही तालीम का मुख्य जरीया बने।
1878 में सर सैयद अहमद खां ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था, ‘‘अफसोस की बात है कि यूरोप में विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में जो जबरदस्त इन्किलाब आया है, मुसलमान उससे लाभान्वित नहीं हो पा रहा है।‘‘ शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमान अन्य समुदायों से कितना पीछे है, इस पर उन्होंने बाकायदा शोध किया। 1882 में केंद्रीय विधान परिशद के शिक्षा आयोग के सामने मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति का जायजा पेश करते हुए उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को चेताया। उन्होंने उस साल के आंकड़े पेश करते हुए कहा कि कलकत्ता यूनिवर्सिटी से निकलने वाले स्नातकों में मुसलमानों की तादाद न के बराबर है। डाॅक्टर्स आॅफ लाॅ में छह और आॅनर्स आॅफ लाॅ में चार छात्र पास हुए हैं, उनमें एक भी मुसलमान नहीं है। बॅचलर आॅफ लाॅ में जिन 705 छात्रों को कामयाबी मिली है, उनमें सिर्फ आठ मुसलमान हैं। इंजीनियरिंग और मेडीकल के स्नातकों में एक भी मुसलमान नहीं है। 326 छात्रों ने एमए पास किया है, जिनमें सिर्फ पांच मुसलमान हैं। इसी प्रकार बीए पास करने वाले 1343 छात्रों में सिर्फ 30 मुसलमान हैं। सर सैयद का इस बात पर जोर था कि कलकत्ता यूनिवर्सिटी के दायरे में मुसलमानों की जो आबादी है, उसके हिसाब से इस विश्वविद्यालय से 1262 मुस्लिम छात्र स्नातक होकर निकलने चाहिए, जबकि निकले हैं केवल 57 । कलकत्ता यूनिवर्सिटी के 1882 के ये आंकड़े मुसलमानों की उस समय की शैक्षिक स्थिति की एक बानगी पेश करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि उस वक्त भारत में मुसलमानों का 800 साल का शासन काल समाप्त हुए सिर्फ 24 साल गुजरे थे। इस घटना के करीब सवा सौ साल बाद मुसलमानों के शैक्षणिक-आर्थिक हालात पर सच्चर कमेटी ने जो रिपोर्ट पेश की, वह उतनी ही चिंताजनक है, जितनी कि सर सैयद अहमद की 1882 की रिपोर्ट थी। आज भी मुसलमान उसी जगह पर खड़ा है। मुस्लिम समुदाय की स्थिति अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से भी बदतर है। देश में 14 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है मगर उनमें अशिक्षा की वजह से सिर्फ ढाई प्रतिशत मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं। आज भी मुसलमानों के मजहबी पेशवाओं का जोर आधुनिक शिक्षा से ज्यादा मदरसों की तालीम पर है और मदरसों की तालीम बेहतर रोजगार दिलाने में असमर्थ है।
सर सैयद अहमद खां ने इस मसले पर भी उस जमाने में रोशनी डाली थी। एक घटना बयान करते हुए उन्होंने लिखा, ‘‘1824 में ब्रिटिश हुकूमत ने कलकत्ता में एक संस्कृत काॅलेज स्थापित करने का फैसला किया, तब तत्कालीन हिंदू नेताओं ने राजाराम मोहन राय के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार से मांग की कि संस्कृत काॅलेज की जगह अंग्रेजी काॅलेज स्थापित किया जाए। हिंदू नेताओं की यह मांग व्यावहारिक और वक्त के तकाजों के अनुकूल थी, जबकि मुस्लिम नेताओं का रवैया ऐसे मौकों पर निहायत अव्यावहारिक, अदूरदर्शी और असुरक्षा की भावना से भरा रहा है। मिसाल के तौर पर 1835 में सरकार ने घोषणा की कि वह तमाम स्कूलों में अंग्रेजी अनिवार्य करना चाहती है, तब मुसलमानों के धार्मिक नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया। कलकत्ता के 8,000 मौलवियों ने अपना विरोध दर्ज करते हुए बाकायदा एक दरख्वास्त ब्रिटिष हुकूमत को भेजी। इन लोगों को आषंका थी कि अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से अंगे्रज इस्लामी तहजीब और तालीम को नुकसान पहुंचाना और ईसाइयत का प्रचार करना चाहते हैं।‘‘ बहरहाल, डेढ़ सौ साल के अंतराल में भी इस जड़ मानसिकता में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। नतीजे में मुसलमानों की कई पीढि़यां इसका खामियाजा भुगत चुकी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कम्प्यूटर लेने की बात मुस्लिम युवकों से करते हैं, तब वे खास तौर से मजहबी पेशवाओं के साथ खड़े नजर आते हैं, जबकि मुसलमानों के डेढ़ सौ साल के तालीमी इतिहास पर नजर डालते हुए नरेंद्र मादी को कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों से अलग हटकर पहल करनी चाहिए। उन्हें मुसलमानों के मजहबी नेतृत्व के बजाय आधुनिक और उदार दृष्टिकोण वाले नेतृत्व को तरजीह देनी चाहिए। कुरान पढ़ने-पढ़ाने की आजादी तो हमारा संविधान देता ही है, आप मुस्लिम नवयुवकों को कम्प्यूटर यानी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा और रोजगार के बेहतर मौके सुलभ कराइए।
मुसलमानों के प्रति नरेंद्र मोदी लगातार सकारात्मक रवैया अपना रहे हैं, जबकि शुरू में आशंक यह थी कि वे सच्चर कमेटी की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में डाल देंगे, अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को भंग कर देंगे और अल्पसंख्यक युवकों के कल्याण से जुड़ी योजनाएं समाप्त कर दी जाएंगी। कांग्रेसी दौर की इन संस्थाओं-योजनाओं को उन्होंने बरकरार रखकर एक सकारात्मक संदेश तो दिया है मगर इन पर अमल करते वक्त उन्हें ‘कांगे्रसी लीक‘ से हटना होगा, क्योंकि कांग्रेस इन मुद्दों के साथ सियासी खेल खेलने की बदनामी बहुत झोल चुकी है।
No comments: