व्यापमं के बाद “शिवराज”
जावेद अनीस
मध्यप्रदेश में व्यापमं का उफान उतार पर है, इस बहुचर्चित घोटाले से अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे शिवराज सिंह के लिए
निकाय चुनाव के नतीजे ने आक्सीजन देने का
काम किया है, उनका संकटकाल फिलहाल के लिए टलता हुआ नजर आ रहा
है,दूसरी तरफ इतना बड़ा मौक़ा मिलने के बाद भी कांग्रेस भी
अपनी पस्ती और गुटबाजी से बाहर नहीं निकल पायी है और ना ही उसके क्षत्रप अपनी
गलतियों से कोई सबक सीखते हुए नज़र आ रहे हैं. पिछले दिनों संपन्न हुए नगरीय निकाय
के चुनावों में भाजपा ने 10 में से 8 पर
जीत हासिल की है। कांग्रेस ने केवल सारंगपुर (राजगढ़) पर ही जीत दर्ज करा पायी है,
बाकि बची एक सीट निर्दलीय के खाते में गयी है. व्यापमं घोटाले के साए में हुए इस
चुनाव पर सभी की
निगाहें थीं, नतीजा आने के बाद मध्यप्रदेश भाजपा ने यह
कहने में देरी नहीं की कि व्यापमं घोटाले का शिवराज की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं हुआ है।
व्यापमं घोटाले की वजह से बेकफुट पर आ चुके मध्य प्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का आत्मविश्वास एक बार भी वापस आता हुआ नज़र आ रहा, भोपाल
में बहुचर्चित हिंदी सम्मलेन के भव्य आयोजन के बाद अब वे मुख्यमंत्री के तौर पर
अपने दस साल पूरा करने की तैयारी में है, इसके बाद 2016 के शुरुवात में ही सिंहस्थ का आयोजन
है.
शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता में अपने दस सालों
के जश्न को नाम दिया है "दस साल-बेमिसाल." इन दिनों मध्यप्रदेश का
सरकारी अमला शिवराज सरकार के बीते दस साल
की उपलब्धियों और अगले दस साल का विज़न डॉक्यूमेंट तैयार करने में लगा हुआ है.बताया
जाता है कि "दस साल-बेमिसाल" का उत्सव पूरे नवंबर चलेगा. मुख्य
कार्यक्रम 29 नवम्बर हो होने वाला है. 2005 में इसी दिन शिवराज ने मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया था.खबरें हैं कि
इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी शामिल
होने वाले हैं. इसके साथ ही इसमें देश भर से बीजेपी
के लगभग 1200 विधायकों
के शामिल होने की संभावना जतायी जा रही है. खबरें आ
रही हैं कि इस जश्न में लगभग 25 करोड़ खर्च होने वाला है. जाहिर
सी बात है इस आयोजन के ज़रिए शिवराजसिंह व्यापमं
के बाद अपनी नेगेटिव छवि को एक बार फिर चमकाना चाहते है और साथ ही साथ वे
यह सन्देश देना चाहते हैं कि उन पर केंद्रीय नेतृत्व का भरोसा कायम है.
ध्यान रहे व्यापमं बवंडर के दिनों में ऐसे ख़बरें आ रही थीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नेतृत्त्व उनसे नाराज है, वैसे
भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के चौहान के रिश्ते
नरेंद्र मोदी के साथ सामान्य
नहीं रहे हैं, एक समय में शिवराज सिंह उनकी तुलना गुजरात
के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से की जाने लगी थी और गुजरात के विकास माडल
के बरअक्स मध्यप्रदेश विकास माडल की बातें हो रही थीं. भाजपा में मोदी शाह युग आने के बाद बाकी नेताओं की तरह पार्टी में शिवराजसिंह
की स्थिति भी कमजोर हुई है, पहले उनके पास फ्री
हैण्ड था, लेकिन केंद्र व पार्टी में
मोदी-शाह जोड़ी के काबिज होने, व्यापमं की गड़बड़ी के बाद सब पस्थितियाँ बहुत तेजी से बदली
हैं, ऐसी चर्चायें भी होती रही हैं कि अमित
शाह कैलाश विजयवर्गीय को एक रणनीति के तहत बढ़ावा दे रहे हैं जिससे मौका मिलने पर विजयवर्गीय को
शिवराजसिंह के मुकाबले खड़ा किया जा सके. गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव से पहले शिवराज
सिंह चौहान की नरेंद्र मोदी के साथ तुलना होने लगी थी, दोनों ही
अपने अपने राज्यों में तीसरी बार मुख्यमंत्री बने थे, आडवाणी यह कह कर शिवराज की वकालत कर रहे थे कि मोदी ने तो विकसित गुजरात को आगे बढ़ाया लेकिन शिवराज सिंह चौहान
ने बीमारू मध्यप्रदेश को जो विकास की राह दिखाई है वह काबिलेतारीफ है.2013
में हुए मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में तो शिवराज ने मोदी को तरजीह ही नहीं दी थी, इस दौरान चुनाव
प्रचार के विज्ञापनों में मोदी का कहीं जिक्र ही नहीं
था हर जगह
शिवराज सिंह चौहान ही छाए हुए थे.
लोकसभा चुनाव के दौरान कई सियासी पंडित भी यह
तर्क दे रहे थे कि चूंकि चौहान की इमेज वाजपेयी की तरह उदार है इसलिये बहुमत ना
मिलने की स्थिति में शिवराज सिंह का भाग्य खुल सकता है. मोदी और शिवराज के बीच सीधी टक्कर
लोकसभा चुनावों के दौरान ही देखने को मिली थी जब
उम्मीदवारों की चौथी सूची में अपना नाम ना पाने पर लाल कृष्ण आडवाणी ने ऐलान कर दिया था कि वे गांधी नगर छोड़ कर मध्यप्रदेश से चुनाव लड़ेंगे। इसके बाद भोपाल
की सड़कों पर होर्डिंग्स नजर आने लगे जिसपर लिखा था “लालकृष्ण आडवाणी
को भोपाल लोकसभा क्षेत्र में अभिनंदन।”
लेकिन फिलहाल
शिवराजसिंह आत्मसमर्पण की मुद्रा में है और मोदी–शाह की जोड़ी को खुश करने का कोई
मौका नहीं छोड़ रहे हैं. अब वे नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय नहीं वैश्विक नेता करार
देने लगे है, पिछले दिनों भोपाल में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मलेन के दौरान नरेन्द्र मोदी को खुश करने की भरपूर कोशिश की गयी,पूरे आयोजन में मोदी
छाए हुए थे, भोपाल को मोदी के बड़े-बड़े कट आउट और पोस्टर से पाट दिया गया था.
शिवराज
सिंह 1977 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं वे एक आज्ञाकारी स्वयंसेवक हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी सबसे बड़ी ताकत
संघ का साथ और विश्वास है, इस दौरान उन्होंने मध्यप्रदेश में संघ को फलने फूलने का
भरपूर मौका दिया है और बहुत ही खामोशी के
साथ संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम किया है,शायद यही कारण है कि व्यापमं में संघ
के शीर्ष नेतृत्त्व का नाम आने के बावजूद संघ का उनपर विश्वास कायम है. एक दूसरा
कारण यह भी है कि शिवराज की मदद से संघ बीजीपी
की अंदरूनी राजनीति में संतुलन बनाये रखना चाहता है.
अगर मध्यप्रदेश में भाजपा और शिवराज
लगातार मजबूत होते गये हैं तो इसमें कांग्रेस का भी कम योगदान नहीं रहा है, अब तो यह
कहावत भी स्थापित हो चुकी है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेसी अपने प्रमुख प्रतिद्वंदी भारतीय जनता पार्टी से कम और आपस में ज़्यादा लड़ते हैं, यहाँ कई सारे नेता हैं जो खुद
को राष्ट्रीय स्तर का मानते हैं हालांकि वे अपने अपने इलाकों के क्षत्रप बन कर रह
गये है और सूबे में उनकी राजनीति का सरोकार अपने इलाकों को बचाए रखने तक ही सीमित
है, दिग्विजय सिंह के बाद कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो पूरे प्रदेश
में प्रभाव रखता हो. खुद दिग्विजय सिंह भी अपने दस साल के वनवास के बाद अपने बेटे
को प्रदेश की राजनीति में ज़माने में ज्यादा मशगूल नजर आते हैं. इस समस्या से कांग्रेस
उबार जायेगी इसके आसार दूर–दूर तक नज़र नहीं आते हैं, फिलहाल मध्य प्रदेश कांग्रेस को एक ऐसे नेता की
जरूरत है जो अपने इलाके से बाहर निकल कर पूरे प्रदेश में अपनी अपील बना सके, इधर मिशन 2018 की तैयारी के तहत कांग्रेस मध्यप्रदेश की कमान सत्तर साल के होने जा रहे कमलनाथ को सौंपने की चर्चायें हैं. देखना दिलचस्प होगा कि अगर उन्हें यह जिम्मेदारी मिलती है
तो कैसे वे प्रदेश कांग्रेस को आपसी फाइट क्लब से निकला कर भाजपा से लड़ना सिखा
सकेगें.
बहरहाल राजनीति अनिश्चिताओं का खेल है, यहाँ कब
क्या हो जाए इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है, व्यापमं घोटाले की गूंज के बाद शिवराज
की कुर्सी पर जो खतरा था वह फिलहाल के लिए शांत हो गया है, लेकिन बीजेपी की
अंदरूनी राजनीति पर नजर रखने वाले जानते हैं कि गुजरात से आई भाजपा की वर्तमान शीर्ष जोड़ी पार्टी के अन्दर के अपने विरोधियों
के साथ कभी नरमी नहीं बरतती है, गुजरात में उन्होंने लगभग डेढ़ दशक तक यह काम बखूबी
अंजाम दिया है, और अपने रास्ते में आने वाले चुनौती व संभावना को पस्त करके दिखाया
है.
व्यापम का भूत भले ही पीछे
छूटता हुआ नजर आ रहा हो, लेकिन जानकार मानते हैं कि शिवराज के सर से खतरा अभी टला
नहीं है. केंद्र और पार्टी में मोदी –शाह जोड़ी की
स्थापना के बाद होने के नर्मदा में काफी
पानी बह चूका है , शिवराजसिंह के लिए अब हालत
पहले जैसे नहीं रह गये हैं है। अब
वे तो वे अपना कैबिनेट विस्तार की डेडलाइन अगस्त को बार – बार आगे बढ़ाने को मजबूर
हैं ।
भाजपा के अंदरूनी राजनीति के लिए बिहार चुनाव टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है, लेकिन 8 नवंबर को नतीजे जो भी आयें इस बात की पूरी संभावना है कि 29 नवंबर को शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री के तौर पर अपने दस साल पूरा कर लेंगें. जो भी होगा
इसके बाद ही होगा. इधर 2016 के शुरू में सिंहस्थ होने वाला है, प्रदेश के
राजनीतिक गलियारों में यह मान्यता व्याप्त है कि हर दस साल में होने वाले सिंहस्थ के बाद सूबे मुख्यमंत्री जरूर बदलता है, देखते है यह सियासी अंधविश्वास इस बार
टूटता है या नहीं .
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